रविवार, 25 नवंबर 2012

हम माटी के रचनाकार और पाठक सृजन की रहस्यमयी ईश्वरीय सृष्टि में कुछ और ज्योतिपुंज जोड़ सकेंगें?

                                            हिन्दी  भाषा में स्तरीय साहित्य का सृजन करने वाली प्रतिभा अभी तक आर्थिक निर्भरता का पायदान नहीं सहेज पायी है ।विश्वविद्यालयों में लगाई गयी पुस्तकें और सरकारी अनुदानसे संरक्षित प्रकाशनों की बात छोड़ दें तो ललित साहित्य का लेखन हिंदी में अभी भी दो जून की रोटी जुटाने में असमर्थ है।राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने वाली लगभग चालीस करोड़ भारतीयों की मात्रभाषा         साहित्यकारों को यदि जीवन यापन का मूलभूत आधार भी प्रदान नहीं कर पाती तो हमें कंही गहरे जाकर हिन्दी -भाषा भाषियों की मनोवैज्ञानिक  टटोल करनी होगी।आश्चर्य है कि हिन्दी भाषा -भाषी मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार अपनी मासिक आमदनी का एक प्रतिशत भी ललित साहित्य पर ब्यय करना नहीं चाहता।उसे अपनें अन्तर्मन की परिष्कृति के लिए श्रेष्ठ साहित्य की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती।वह हल्के फुल्के अखबारी चुटकुलों ,सिने तारिकाओं की प्रेम कहानियों और अपहरण और बलात्कार की नशीली खुराकों से अपने को एक भ्रामक छलना में घेर कर जीवन यापन करता रहता ह।उसे लगता ही नहीं कि भीतर का परिमार्जन उत्क्रष्ट विचारों और सर्वकालीन सांस्क्रतिक मूल्यों के विना संम्भव ही नहीं हो पाता।इसके पीछे हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों की भीषण गरीबी तो है ही पर साथ ही कहीं धार्मिक प्रवचनों की वाचिक परम्परा से निरंतर जुड़े रहने की अपरिहार्यता भी है ।उसे शताब्दियों से यही समझ दी जाती रही है कि धार्मिक प्रवचनों और दैनिक पूजा अनुष्ठानों से उसे आत्मदीप्ति मिल जाती है और बाकी अन्य ललित साहित्य कुछ विशेष पढ़ाकू या लिखाकू लोगों के बीच चर्चा के लिए ही लिखा जाता है।ऐसा संभवत :इसलिए भी रहा है कि परतन्त्रता के सैकड़ों वर्ष के लम्बे काल में पौराणिक कथा कहानियों और क्षेत्रीय साधुओं ,संन्तों और महन्तों के माध्यम से ही उन्हें भौतिक जीवन से परे मानव अस्तित्व के रहस्यात्मक पहलुओं से परचित कराया जाता था।स्वर्ग -नर्क,मोक्ष ,जन्म ,पुनर्जन्म ,वैभव ,दारिद्र्य ,वर्ग .वर्ण .लिंग और फेथ सभी कुछ एक बहुत पुरानी घिसी -पिटी तर्क पद्धति से भजनीकों और अर्ध शिक्षित ज्योतिषियों और पुरोहितों द्वारा सामन्य जन मानष में  भर दिए गए थे।वहां कोई तर्क नहीं था।वहां कोई प्रश्न नहीं था।वहाँ गणित की सम्पूर्ण समाधान क्षमता बतायी गयी बातों को सहज रूप से स्वीकार करनें में व्योहस्त होती थी।विपुल ब्रम्हाण्ड के विस्मय भरे रहस्य को जान लेने का अदम्य जीवट संजोये मानव मस्तिष्क की अपार क्षमता का घिसे -पिटे मार्ग के अतिरिक्त और भी कोई मार्ग हो सकता है ऐसा मानना शताब्दियों तक हिन्दी भाषा -भाषी समाज में असुरत्व की ओर बढ़ना माना जाता था।जीवन जीने की शत -शहस्त्र मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को एक काष्ठ घेरे में बन्द  कर किसी पूर्व निश्चित लीक पर चलने की बाध्यता ने हिन्दी भाषी समाज को काफी हद तक संवेदन शून्य बना दिया।ललित साहित्य को निरर्थक समझ कर उस पर किये गए व्यय को भी कही न कहीं लीक से अलग हटकर चलना मान लिया गया। यह धारणा इतनी गहरायी से अधिकाँश हिन्दी बोलने वालों के मन में जड़ें जमा चुकी हैं कि साहित्य पर किया गया व्यय अपव्यय के रूप में स्वीकृत हो चुका है।संभ्रांन्त ,प्रतिष्ठित ,अतिशिक्षित और उच्च पदस्त हिन्दी भाषा भाषी घरों में भी हिन्दी के ललित साहित्य की श्रेष्ठ रचनायें यदा कदा ही देखने को मिलती हैं।अंग्रजी में छपी भारतीय लेखकों की भारतीय परिवेश से नितान्त कटी  हुई किस्सा कहानियां  वहाँ वहुतायत से देखने को मिलेंगी पर हिन्दी के तरुण रचनाकारों की कोई भी पुस्तक वहां मिलना शायद मुमकिन ही  नहीं है ।यह बात दूसरी है कि ऊँची कक्षाओं में लगायी गयी कुछ उपन्यास ,कहानियाँ या आलोचना -ग्रन्थ वहाँ मिल जायँ ।
                                     व्यापार में सफल होने वाले लोग या राजनीति में तिकड़म से ऊँचाई में पहुचे हुये लोग शायद यह समझते हों कि कविता ,कहानी ,उपन्यास या साहित्य की ललित विधा के अन्य प्रकार विना प्रयास के ही जन्म ले लेते हैं।उनके लिये किसी साधना या लम्बे समय की मनोवैज्ञानिक तैय्यारी की आवश्यकता नहीं होती।उन्हें यह जान लेना चाहिये कि एक श्रेष्ठ कविता ,एक श्रेष्ठ कहानी ,एक श्रेष्ठ संस्मरण ,एक श्रेष्ठ औपन्यासिक कृति,एक श्रेष्ठ निबन्ध या लिखित अभिव्यक्ति का एक और कोई श्रेष्ठ आकार एक गहरी साधना और एक लम्बे समय की माँग करता है हाँ इसके लिये एक विशेष प्रकार की प्रतिभा भी अपेक्षित होती है जिसे प्रक्रति जन्य कहा जा सकता है।एक ब्रैड मैन ,एक सचिन तेन्दुलकर ,एक सोवर्स या एक धोनी निरन्तर अभ्यास के द्वारा ही श्रेष्ठता के शिखर पर पहुचें हैं पर मात्र अभ्यास या समय उन्हें उस ऊँचाई पर नहीं ले जा सकता जिस पर वे खड़े हैं।यदि उनमें नैसर्गिक खेल प्रतिभा न होती।अपने श्रेष्ठतम प्रदर्शन के दौरान क्रिकेट प्रेमी समाज उन्हें आदर और सम्मान के साथ ही साथ एक ऐसी आर्थिक सुद्रढ़ता भी प्रदान करता है जो उन्हें पूरे जीवन के लिये सशक्त और सामर्थ्यवान बना देता है।श्रेष्ठ साहित्यकार के लिये हिन्दी भाषा-भाषी समाज ऐसा क्यों नहीं कर पाता इस पर हमें मनन करना होगा।प्रेम चन्द्र जी और निराला जी का सारा जीवन अदम्य जीवट और भीषण  संघर्ष की कहानी रहा है ।जिन साह्त्यकारों का पारवारिक आधार आर्थिक रूप से सुद्रढ़ रहा हो उनकों छोड़ दें तो वाकी के लिये यदि आजीविका का अन्य कोई मार्ग नहीं है तो साहित्य रचना अभाव के संकट भरे द्वारों की ओर ही ढकेलती रहती है।विश्वविद्यालय या महाविद्यालय या माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण कार्य पा जाने वाले साहित्यकार भले ही आर्थिक सुरक्षा पा जाते हों पर डिग्रियों की उच्चतम ध्वजा पताकाओं से दूर रहने वाले सैकड़ों सशक्त साहित्यकार अभाव का  दयनीय जीवन विताने पर विवश हैं।सरकार उनके लिये कुछ करे या न करे यह सरकार चलाने वालों की अपनी सोच है ।पर हम शिक्षित भाषा -भाषी लोगों का यह कर्तब्य अवश्य बन जाता है कि हम श्रेष्ठ रचनाओं और उन रचनाओं को प्रकाशित करने वाली पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डाले।साहित्य अपने भब्यतम रूप में ईश्वरीय गौरव से मण्डित होता है।ईश्वर की आराधना करने वाला व्यक्ति जैसे पूजा को अपनी दिनचर्या का एक अनिवार्य तत्व मानता है ठीक वैसे ही हिन्दी भाषा -भाषी साहित्य प्रेमियों को ललित साहित्य को जन मानस तक पहचानें वाली रचनाओं और पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डालनी होगी।हम कोटि कोटि जन यदि अपने सशक्त ,चरित्रवान ,तरुण शब्द शिल्पियों का संवर्धन ,सरंक्षण नहीं कर सकते तो निश्चय ही हमारे लिये शर्म की बात है।निरन्तर सरकारी आश्रय की मांग करना यह स्वीकार करना होगा कि हम हिन्दी भाषी वैसाखियों के बिना सांस्क्रतिक विकास के मार्ग पर चल ही नहीं सकते।
                                                         "माटी "निरन्तर इस चेष्टा में निरत है कि उसमें स्थान पाने वाली श्रेष्ठ रचनाओं के रचयिताओं को सम्मान- राशि के रूप में प्रोत्साहन दिया जाय।हम नहीं जानते कि हमारे सीमित साधन हमें कब उस आर्थिक आधार भूमि पर खड़ा कर पायेंगे जहां हम अपनी आंतरिक इच्छाओं को मूर्तरूप दें सकें।पर हमारे प्रयास के ईमानदारी में कोई खोट नहीं हैं ऐसा विश्वाश  हम अपने रचनाकारों को दिलाना चाहेंगे ।"माटी" के सौभाग्य से प्रतिभाशील लेखकों की उत्क्रष्ट रचनायें हमें मिलती जा रहीं हैं ।सभी रचनाओं का प्रकाशन प्रत्येक अंक में संभव नहीं हो पाता पर हम चुनी हुई रचनाओं को सुविधा नुसार आगामी मासिक अंकों में प्रकाशित करते रहेंगें ।यदि पाठक किसी रचनाकार के बारे में अधिक जानकारी पाना चाहें तो सम्पादकीय कार्यालय से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं ।प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि वे साहित्य की समझ रखने वाले अपने अन्य साथियों को भी माटी पढने के लिये प्रेरित करें । सिनेमा या क्रिकेट का इन्टरटेन्मेंट (मनोरन्जन )सामन्य जन तक भी सीधे पहुँच जाता है पर साहित्य को समझने ,सराहने के लिये एक उच्च मानसिक स्थिति की आवश्कता होती है ।"माटी "के प्रबुद्ध पाठक ज्ञान -विज्ञान के प्रसार का केन्द्र बिंदु बनकर साहित्यिक पुनर्जीवन के लिये नयी चेतना के चक्रों का निर्माण कर सकते हैं।चेतना के जिस धरातल पर आज मानव जाति खाड़ी है उसमें धरती का छोटापन और उभर कर हमारे सामने खड़ा हो गया है।भारत का चंद्रयान सितारों की खोज करके वापस आ गया है।विश्व मानव की तारपथी दौड़ में भारत भी कहीं खड़ा है इसका अहसास हमें गर्व से भर देता है। हम "माटी "के रचनाकार और पाठक सृजन की रहस्यमयी ईश्वरीय सृष्टि में कुछ और ज्योति पुंज जोड़ सकेंगे ।इसी कामना के साथ -
गिरीश कुमार त्रिपाठी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें