रविवार, 25 नवंबर 2012

प्रतिभा किसी देश काल से न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती है

                            कितनी बार ऐसा होता है कि हम भीड़ -भाड़ से हटकर एकान्त में बैठना चाहते हैं ।तपस्वी ,साधु और गुफावासी ऋषि -मुनि एकान्त  में रहकर ही परम सत्य की खोज करते है ।अपने अपने मापदण्डों के अनुसार वे इस परम सत्य का साक्षात्कार भी कर लेते हैं ।विश्व की हर सभ्यता में एक काल ऐसा रहा है जब अन्तिम सत्य पा जाने का दावा करने वाले खोजियों ने मनुष्य को संसार छोड़कर मुक्ति ,मोक्ष या अन्तिम सत्य की तलाश में लग जाने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया ।एकान्तवास कर सत्य अन्वेषण की इस पुकार को मिथ्या कह कर नकार देना अनुचित ही होगा ।पर इस सत्य को भी हमें स्वीकार करना ही होगा कि मानव सभ्यता के लगभग सभी टिकाऊ मूल्य जो सभ्यता के आधार स्तंम्भ बने हैं सामूहिक जीवन से ही प्राप्त हुये हैं ।एकान्तवासियों के लिए भी सामाजिक सम्पर्क की आवश्यकता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना मनन चिन्तन के लिये एकान्त  की।सुदूर अतीत में शायद कभी ऐसा रहा हो जब अकेला व्यक्ति अपने भरण पोषण के लिये प्रकृति संसाधन एकत्रित  कर लेता हो पर बिना हम जोलियों के सहवास के उसे जीवन निरर्थक ही लगता होगा।विगत के सन्दर्भ आज उतने सटीक नहीं हैं और अब हम एकान्त वास की कल्पना अपने जीवन के उन प्राईवेट क्षणों से जोड़ सकते है जब हम दिन के चौबीस घन्टों में अपने निजी आवासों पर होते हैं ।पारिवारिक जीवन भी विशाल मानव समुदाय से अलग हटकर अक प्रकार का एकान्तवास ही है ।जो हमें जीवन के बड़े सत्यों की तलाश में प्रवृत्त करता है ।समाज शास्त्री आज एक मत से यह सिद्धांत स्वीकार कर चुके हैं कि सामूहिक  जीवन में ही मानव विकास की अजेय विजय यात्रा का सूत्रपात किया था और आज भी मानव समाज की सामाजिक भावना ही हमें विकास के लम्बे दौर में पहुंचा सकेगी ।व्यक्ति परिवार का भाग होता है ,परिवार ग्राम का ,ग्राम कबीले का ,कबीला क्षेत्र का ,क्षेत्र छोटे या बड़े राष्ट्र का और राष्ट्र छोटे या बड़े भूखण्ड का तथा भूखंडों की ईकाइयाँ अन्तर राष्ट्रीय समुदाय का।चेतना की ये सामूहिक ऊँचाइयाँ मानव विकास के सोपानो को चिन्हित करती हैं।हममें से अभी भी कुछ कबीले ,कुछ क्षेत्र या कुछ भूखण्ड अन्तर्राष्ट्रीय मानव समुदाय का एक सहज अंग नहीं बन सके हैं क्योंकि उनका चिन्तन विकास की पूरी गति नहीं प्राप्त कर सका है ।सच तो यह है की जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है उसका चिन्तन भी उतना ही बड़ा होता है।इस बड़े चिंन्तन  के लिये आधुनिक या अत्याधुनिक होना ही आवश्यक नहीं है ।ऐसा चिंतन कम से कम भारतीय संस्क्रति के प्रभात में भी देखा जा सकता है ।अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध कवि JohnDonneनें सत्रहवीं शताब्दी में ही कहा था "यह मत पूंछने जाओ कि चर्च का घण्टा बजकर किसकी मृत्यु की सूचना दे रहा है  वह तुम्हारी अपनी मृत्यु की सूचना है क्योंकि तुम मानव जाति का एक अविभाज्य अंग हो ।"आज विश्व का लगभग सभी शिक्षित जन समुदाय इस सत्य को स्वीकार कर चुका है भौगोलिक,क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सीमायें मात्र प्रबन्धन पटुता के लिये बनायी गयी हैं उन्हें मानव जाति को विभाजित करने के लिए स्तेमाल नहीं करना चाहिये।कौन ऐसा शिक्षित भारतवासी है जिसने अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा के चुनाव में गहरी दिलचस्पी न दिखायी हो।या फिर बँगला देश में शेख हसीना की जीत पर खुशी का इज़हार न किया हो।ऐसा इसलिये है कि अब किसी भी राष्ट्र के हित उसके पड़ोसी राष्ट्रों के साथ तो मिले जुले हैं ही पर साथ ही उन हितों का सम्बन्ध समस्त मानव जाति के विकास से भी है।ब्रिटेन में प्रधान मंत्री मैकमिलन ने साउथ अफ्रीका के अपने दौरे के दरमियान जब यह बात कही थी कि रंग भेद एकाध दशक में इतिहास के कूड़े कचरे में फेंक देने वाली नीति के रूप में जाना जायेगा तब साउथ अफ्रीका के श्वेत नेताओं ने उनकी तीखी आलोचना की थी।पर प्रधान मन्त्री मैकमिलन नें जिस दूर द्रष्टि का परिचय दिया था वह आज इतिहास का अमर सत्य है ।यदि कोई शिक्षित आधुनिक युवक चाहे वह किसी भी देश का हो अज यह मानता है कि रंग भेद के कारण या जाति भेद के कारण वह जन्म से ही अन्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ है तो उसे एक मानसिक रोगी ही करार दिया जायेगा ।विज्ञान ,कला ,साहित्य खेल ,शौर्य ,राजनीति अन्तरिक्ष अनुसन्धान और सत्य धर्म की खोज -कोई भी  तो ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमे हर रंग ,हर जाति ,और हर नस्ल के श्रेष्ठ लोगों नें अपनी पहचान न बनायी हो राजनीति के सत्ता गलियारों में आज उन विदेश मन्त्रियों को सच्चे राष्ट्रीय सेवको के रूप में लिया जाता है जो अपनी कुशल दूरगामी द्रष्टि के द्वारा विश्व जनमत को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं ।सच तो यह है कि अन्तरराष्ट्रीय संगठनों से जुड़े रहने वाले प्रबुद्ध मनीषी प्रशासन को विशालता का एक नया आयाम देने में समर्थ होते हैं ।भारत के मध्ययुगीन सभ्यता में कुछ समय ऐसा था जब शारीरिक श्रम की महत्ता को पूरे गौरव के साथ स्वीकार नहीं किया गया ।हिन्दी भाषा के कुछ शब्द जो कर्म वाचक संज्ञाओं या विशेषणों के रूप में प्रयोग होते थे अपना महत्व खोकर हीन भाव के प्रतीक बन गये ।भाषा के विचारकों को इन शब्दों को नयी प्रान्जलता देकर फिर से सार्थक ऊचाइयों पर पहुचाने का प्रयास करना चाहिये ।जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के शोधार्थिओं ने कुछ आवश्यक काम किया है ।माटी इस दिशा में किये जा रहे प्रयत्नों की तलाश में है और भाषा शास्त्रियों से संपर्क साधे हुये है ।सार्थक सामाजिक श्रम से जुड़े कुछ समुदाय स्वयंम भी इस दिशा में प्रयत्न शील हैं ।उनके प्रयत्नों को एक वैज्ञानिक आधार देने की आवश्यकता है ।गहरी सूझ बूझ वाले माटी के पाठक इस बात से भली भाँती परचित होंगे की हम अपने लेखों और रचनाओं में विश्व के जाने माने विचारकों की बातें उद्धत करते रहते हैं।ऐसा इस लिए है कि हम यह बताना चाहते हैं कि अपने सर्वोत्कर्ष रूप में  ।माटी कई बार प्रतिभा किसी देश काल से न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती हैअपनी रचनाओं में ऐसे शब्द समूहों को भी निखारती रहती है जो अर्थ संकुचन के कारण व्यापक स्तर पर प्रयोग नहीं किये जाते ।ग्राम सभ्यता जे जुड़े कई शब्द कल तक भले ही ऊँचे कद के योग्य न माने गये हों पर आज तो उन्हें पूरे आदर के साथ स्वीकारना होगा।हलवाहा यदि हलधर होकर अपने पौराणिक प्रसंगों के कारण गरिमा मण्डित हो जाता है या पापी यदि तन्तुवाय के रूप में सार्थक वनता है तो हमें इन शब्दों का संसकारी करण करना होगा।ये मात्र सुझाव की एक द्रष्टि है।इस दिशा में भाषा विदों द्वारा कई अधिक सार्थक प्रयोग किये जा सकते हैं ।हो सकता है हमारे कुछ सफल राजनीतिज्ञ समाज के उन वर्गों से उठ कर आये हों जिन्हें भाषा की क्षेत्रीय मान्यताओं ने उपेक्षित किया हो।मुझे  विशवास है कि उनका वैदूर्य हिन्दी भाषा के शब्द संसकारी करण में भी एक भूमिका निभायेगा।

1 टिप्पणी: